सरोलाओं के हाथों बना व परोसे जाने वाले दाल- भात की पौराणिक परंपरा को बनाए रखने को ग्रामीणों ने की बैठक

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  • विजय थपलियाल के नेतृत्व में गढ़वाल सरोला ब्राह्मण कोर कमेटी की बैठक आयोजित

 

वाचस्पति रयाल@नरेन्द्रनगर।

देव भूमि उत्तराखंड को,अपनी पौराणिक, आध्यात्मिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सभ्यता, रीति- रिवाज, खान-पान व रहन-सहन जैसी विशिष्ट परम्पराओं के लिए समूचे विश्व भर में जाना जाता है, मगर आज यहां की ये पौराणिक व धार्मिक परंपराएं, प्रायः विलुप्त सी होती जा रही हैं।

इन्हीं विशिष्ट धार्मिक रीति रिवाजों में शुमार है, उत्तराखंडी सांस्कृतिक विरासत की ब्राह्मण जातियों के सरोला के हाथों से बने दाल भात की अनूठी परंपरा।

मगर कभी बहुत सुदृढ़ व समृद्ध माने जाने वाली,यह परंपरा आज के दौर में,पाश्चात्य संस्कृति की आगोश में विलुप्त सी होती चली जा रही है।

इस अनूठी परंपरा को बचाए व बनाये रखने के उद्देश्य से, पौराणिक परंपराओं के जानकारों ने 47 देवर्षि एनक्लेव पटेल नगर देहरादून में पौराणिक परंपराओं के ज्ञाता विजय थपलियाल के अध्यक्षता में एक महत्वपूर्ण बैठक का आयोजन किया।

बैठक में सम्यक विचारोपरांत पहाड़ी खानपान की रीढ़ माने-जाने वाली सरोलाओं के हाथों से बना व परोसा जाने वाला, स्वादिष्ट भोजन दाल भात जैसे पौराणिक रीति रिवाजों की इस परंपरा को बनाए रखने हेतु बैठक में गहन विचार विमर्श किया गया।

देहरादून में आहूत बैठक में शिरकत करने के बाद ब्राह्मण सारोला कोर कमेटी के नव निर्वाचित सदस्य नरेंद्र बिजल्वाण ने यहां लौटने पर बताया कि उत्तराखंड ग्रामीण परिवेश के शादी-विवाह, नामकरण, मुंडन संस्कार व श्राद्ध-बरसी जैसे महत्वपूर्ण उत्सवों पर सरोला जाति के ब्राह्मणों द्वारा दाल भात बनाने में प्रयुक्त किए जाने वाले बड़े-बड़े डेगों, भड्डुओं, कढ़ाईयों व चासणों पर पकाए जाने वाले भोजन ग्रहण करने के लिए, जमीन पर पंक्तिबद्ध बैठते हुए,माल़ू के पत्तों व पुड़खियों पर ब्राह्मण सरोल़ाओं के द्वारा परोसे जाने वाले दाल- भात, सब्जी को ग्रहण करने को एक साथ जमीन पर बैठने और एक साथ उठने की अनूठी परंपरा नियम कायदों के चलते अनुशासन की बहुत बड़ी मिशाल हुआ करती थी। मगर पाश्चात्य संस्कृति की ओर झुकती चली जा रही, हमारी यह अनोखी व अलौकिक परंपरा मानों आज जमाने की बात बनकर रह गई है।

बैठक में मौजूद पौराणिक परंपराओं के पारखियों का कहना था कि हमें अपने उन पूर्वजों की सोच को दाद देने होगी, जिनके द्वारा स्थापित इन समृद्ध पौराणिक परंपराओं को निभाने के लिए ठोस कायदे बनाए गए।

वक्ताओं का कहना था कि इन बड़े उत्सवों को संपन्न करने के दौरान अटूट भाई-चारा, सामूहिक एकता, एक दूसरे के प्रति आदर भाव, नियम कायदों का कड़ाई से पालन किया जाना,धार्मिक रीति रिवाज को निभाने की ये समृद्ध परंपरायें निश्चित ही, समाज को एक सूत्र में बांधे रखा करती थी।

इन परंपराओं के पारखी विजय थपलियाल का कहना था कि आज के दौर में स्टैंडिंग खाना, खाने की पद्धति के दौरान जब मैं यह सुनता हूं की *सब चलता है* तो मन व्यथा से भर जाता है।कहा कि इस तरह की सोच और क्रियाकलाप हमारी पौराणिक परंपराओं को न सिर्फ चोट पहुंचाती हैं, बल्कि इसी तरह की सोच पौराणिक परंपराओं को विलुप्ति की दिशा में धकेलती जा रही हैं।

कोर कमेटी की सदस्यों का कहना था कि जैसे-जैसे वक्त बीतता जा रहा है, वैसे-वैसे देवभूमि उत्तराखंड की पौराणिक, सांस्कृतिक व धार्मिक परंपराओं पर पाश्चात्य संस्कृति हावी होती चली जा रही है और हम अपनी बहुमूल्य पौराणिक धरोहर को अपने ही सामने खंडित व विलुप्त होते देख रहे हैं।

नरेंद्र बिजल्वाण ने बताया कि बैठक में यह बात उभर कर सामने आयी कि परंपरागत पौराणिक आयोजन का स्वरूप आज ,बजते डीजे सिस्टम, टेबलों पर परोसे दाल-भात व अन्य आइटमों के लजीज भोजन का स्वाद खड़े-खड़े कांटेदार चम्मचों के बल-बूते चखते व छकते मेहमानों की टोलियां व बदन पर पहने चमकते-दमकते लिबास पर पड़ती आंखों की फिसलती नजरें, पाश्चात्य संस्कृति के रथ पर स्वर होती चली जा रही हैं।

बैठक में चिंता जाहिर की गई कि पाश्चात्य संस्कृति, सुदूर गढ़वाल क्षेत्र के गांवों में भी, हमारी अपनी संस्कृति पर कितनी भारी पड़ती जा रही है।

इन तमाम बातों पर चिंतन मंथन करने और अपनी पौराणिक संस्कृति और सभ्यता को बचाने के लिए, धार्मिक परंपराओं के विद्वान पुरुष विजय थपलियाल की पहल का सभी ने स्वागत किया।

वक्ताओं ने कहा कि सरोला ब्राह्मण 8 वीं से 10वीं सदी के मध्य में मैदानी स्थान से देव लोक उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में आये थे,जो राजशाही के बेहद करीब थे । पौराणिक चार धाम एवं कई पौराणिक सिद्ध पीठ के गर्भ गृह की नियमित विधिवत पूजा ,भोग बनाना व भगवान को प्रसाद अर्पित करना तथा भोज्य पदार्थ/ पकवान को बनाने के लिये राजशाही द्वारा 12 ब्राह्मणों जातियों को यह विषेश दायित्व दिया गया था, इन सभी को नियमों का भली भांति पालन करना होता था।

बैठक में महा ज्ञानी व पौराणिक परंपराओं की जानकार स्व०अरविंद भट्ट के लेखों की भी चर्चा की गई।

पौराणिक परंपराओं के पारखी विजय थपलियाल द्वारा पिछले 8 वर्षों से इस पौराणिक परंपरा को जिंदा रखने के उद्देश्य से सोशल मीडिया के अलावा बैठकों का आयोजन करते हुए, 238 सरोला परिवारों को व्हाट्सएप ग्रुप में जोड़ने व जागरूक करने के लिए, आभार व्यक्त किया गया।

गहन विचार विमर्श के बाद 10 लोगों की कोर कमेटी गठित की गई जिसमें:-विजय थपलियाल, आचार्य सत्य प्रसाद खंडूरी, राजेन्द्र नौटियाल,कुलदीप गैरोला , रमेश थपलियाल,सुशील नौटियाल, भगवती प्रसाद सेमवाल,डॉक्टर सुरेंद्र प्रसाद डिमरी, डॉ०शैलेन्द्र डिमरी व नरेन्द्र बिजल्वाण को शामिल किया गया।

इस पौराणिक परंपरा को बनाए रखने के लिए अनेकों प्रस्ताव पारित किए गए, जिन्हें धरातल पर उतारने के लिए आवश्यक कार्रवाई बहुत जल्द अमल में लाने की बात की गई है।

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